Ekk taka teri chakri ve mahiya - 1 in Hindi Love Stories by Jaishree Roy books and stories PDF | इक्क ट्का तेरी चाकरी वे माहिया... - 1

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इक्क ट्का तेरी चाकरी वे माहिया... - 1

इक्क ट्का तेरी चाकरी वे माहिया...

  • जयश्री रॉय
  • (1)
  • पेड़ के घने झुरमुटों के बीच से अचानक आसमान का वह टुकड़ा किसी जादू की तश्तरी की तरह झप से निकला था- चमचमाता नीला, चाँद-तारों से भरा हुआ! चारों तरफ यकायक उजाला फैल गया था। कश्मीरा आंख चौड़ी कर देखता रहा था, घुप्प अंधेरे की अभ्यस्त आँखें चौधिया गई थीं। जाने कितने दिन हो गए थे रोशनी देखे! स्याही के अंतहीन ताल में ऊभ-चुभ रहे थे सबके सब। रोशनी बस जुगनू की तरह यहाँ-वहाँ तिमकती हुई।

    घुटने में चोट लगी है। लंगड़ा कर चलता है वह। उसके रह-रह कर कसक उठते तेज दर्द के बीच यकायक सिबो की चुनरी याद आई थी- बसंती, गोटों से जड़ी, साथ ही उसका आधे चाँद-सा माथा, दो जुड़ी हुई भौंहों के बीच की छोटी बिंदी, नीली तितली-सी शरीर आँखें... छाती में फांस-सा पड़ गया था। छत पर उसे ही लहरा कर तो वह इशारे से कहती थी उसे, आज सरसों की झील में, आज गन्ने के पश्चिम वाले गड्ढे में... अपनी लाल कुर्ती को गले तक सरका कर राज हंसिनी की तरह बीच खेत खड़ी वो निडर लड़की! शाम की ललछौह धूप में सीने पर जगमगाते दो पूरनमासी के भरे-पूरे चाँद लिए... प्यार के जो सबूत वो शरारत में मांगता था, उसके प्रेम में दीवानी सिबो बेझिझक देती थी! ऐसे कि वह खुद घबरा जाता था। बढ़ कर उसे ढाँपता था- पागल हुई है!... सोचते हुये उसकी बांह की ऐंठती मछलियों में घुंघरू की रुनझुन-सी भरती जाती है, शराब उतरती है नसों में, भींगते हैं रोएँ, तर हो आता है वह- आह!

    जबड़ों के बीच सनसना कर उठते बवंडर को दबाते हुये वह सोचने की कोशिश करता है- कितना दूर है ये सब, किसी पिछले जनम की बात-सा लगता है। बीच के जंगल, नदियां, पहाड़ अपने ओर-छोर गुमा कर अनायास पसरते गए थे आँखों के आगे। काही जंगल का हरहराता रेगिस्तान, चाकू की फाल-सी खाल उधेड़ती हवा... उस पर फिर से घबराहट का दौरा-सा पड़ गया था, ओस भीगी रात में हथेलियों में पसीना भर आया था एकदम से, माथे से चूआ था टप-टप- वो हमेशा के लिए खो जाएगा इस बीहड़ में! सिबो, तुझे पता भी ना चलेगा, तेरा सिरा किस बीहड़ में दफन हो गया, हड्डी-चमड़ी खा गई इस परदेश की जालिम बर्फानी हवा... रोना मेरे लिए, भुला मत देना हरजाइयों की तरह! बाईस साल का गबरू जवान कश्मीरा रात की ओट में छुप-छुप कर रोता है। जब से गाँव छूटा है, बीबीजी की दुलार भरी छांव, कश्मीरा बच्चा बन गया है। बात-बात पर रोता है। ठीक जैसे पहली बार स्कूल जाने पर रोया था! तब तो एक तसल्ली होती थी, जब स्कूल की छत की छांव सीढ़ियों की आखिरी पायदान को छू लेगी, बीबीजी आएगी उसे लेने। वह कोरस में पहारे का रटटा मारते हुये बार-बार सीढ़ियों की ओर देखता रहता था। जिस बीबीजी का रास्ता वह दिन भर देखता था, उसके आने पर फिर वह रास्ते भर उसे ही पीटता जाता था- बोल, फिर मुझे छोड़ कर जाएगी? बीबीजी बिना कुछ कहे चुपचाप उसकी मार खाती थी। घर जा कर उसके हाथ-पाँव धुलाती थी, रोटी खिलाती थी। पीतल की बड़ी परात में मलमल से ढँकी गूँथी हुई आटे की लोई, मलाई की झिल्ली पड़ी ईलायची वाली चाय... आँखों में आँसू के साथ मुंह में नमकीन परौंठे का स्वाद जागता है, पेट की भूखी अंतड़ियां चटक उठती हैं- बीबी! मुझे एक बार घर ले चल, अब तुझे कभी नहीं सताऊँगा...

    अबकी उसकी घुटी हुई हिचकियाँ सतनाम के कानों तक पहुँचती है, वह अपने होंठों पर उंगली रख कर उसे चुप रहने का इशारा करता है। अपने में गुम अब तक वह अपने आसपास से बेखबर बैठा था, अब ध्यान गया था, सामने ढलान की तरफ झाड़ियाँ हिल रही हैं, कुछ अजीब-सी आवाज़ आ रही है। कश्मीरा अपनी सिसकी रोकने के लिए अपना गला दबोच लेता है। उनके आगे-आगे चलता एजेंट एकदम से झाड़ियों में छलांग लगा कर गायब हो जाता है! वे सब के सब अंधेरे में आँखें फाड़-फाड़ कर देखने की कोशिश में एक जगह खड़े रह जाते हैं। नीचे, दूर ढलान में तेज रोशनी की लकीरें इधर-उधर चकराती दिखती हैं, साथ ही कुछ लोगों के बोलने की अस्पष्ट-सी आवाज़ें, किसी कुत्ते की भौंक। वे दम साधे खड़े रहते हैं, आसपास बिखरे चट्टानों की तरह निश्चल! जाने कितनी देर।

    यहाँ पाईन और ओक के ऊंचे, दैत्याकार पेड़ आकाश को छू रहे हैं। इतने सघन कि एक टुकड़ा आकाश नहीं दिख रहा। जैसे महीन बुनी दुशाला! चारों तरफ स्याह अंधेरा और पत्थर-सा अडोल सन्नाटा। दूर-दूर तक। बीच में बस रह-रह कर जंगली बिल्ली जैसी इस डाल, उस डाल गुर्राती फिर रही हवा और रैवेन की कर्कश चीख...

    सबकी जुबान तालू से जा चिपकी है। डर कतार बंधी चींटियों की तरह नसों में धीरे-धीरे चल रहा है। आँखों की पुतलियाँ फैली हुई हैं। अब! अब वे पकड़े जाएँगे, अब धकेल दिये जाएँगे किसी दम घोंटू कैद में! फिर वही मार, जिल्लत और भूख-प्यास...

    रशिया का बार्डर पार करते हुये वे पकड़े गए थे। दस दिन तक एक किले जैसे जेल में बंद रखे गए थे। खाने के लिए बस बंद गोभी का ठंडा सूप और बेस्वाद ब्रैड के मोटे टुकड़े। जिस काजल की-सी कोठरी में वे रखे गए थे उसमें दिन के समय भी रात-जैसा अंधकार छाया रहता था। हर सुबह चार बजे के करीब एक सिपाही आ कर जो सामने मिलता था उसे पकड़ कर ले जाता था और उससे जेल के गंदे लैट्रिन धुलवाता था, नालियाँ साफ करवाता था।

    इससे बचने के लिए उस छोटी-सी कोठरी में सारे लड़के टोकरी में बंद केंकड़ों की तरह खींचते-धकेलते एक-दूसरे के पीछे छिपने की कोशिश करते रहते। मगर होता वही जो हर दिन होता था- कोई ना कोई बंदा सिपाही के हाथ पड़ जाता और फिर उसकी दुर्गति होती। कश्मीरा भी एक बार फंसा था। उस दिन उसे लगा था, उल्टी के साथ अपनी अंतड़ियां भी नाली में उलट आयेगा।

    इस बीच कोई उनसे किसी तरह की पूछताछ नहीं करता था। यह हालत और भी बुरी थी। उन्हें समझ नहीं आ रहा था ये रुसी आखिर क्या करने वाले थे उनके साथ। सुनी हुई तरह-तरह की कहानियाँ और भी डरा रही थीं उन्हें। कोई कह रहा था, ये अक्सर गैरकानूनी ढंग से आने वाले विदेशियों को गोली मार कर जेल के अहाते में गाड़ देते हैं। जमीन में दबी लाशें इनकी सब्जी की फसल के लिए खाद का काम करती हैं। तभी तो इनके बंद गोभी फूट बॉल की तरह बड़े-बड़े होते हैं! रोज पीते हैं ये बंद गोभी का सूप! सुन कर सब भीतर ही भीतर काँपते रहते। जेल के अहाते में सब ने देखी थी बंद गोभी की क्यारियाँ! अब आते-जाते क्यारियों में उगी बड़ी-बड़ी बंद गोभियां उन्हें कैदियों की मुंडियों जैसी लगतीं!

    आठ-दस दिन की लंबी प्रतीक्षा के बाद आखिर एक दिन एक लाल चेहरे वाला रूसी हाथ में डंडा ले कर कमरे में आया था और चीख-चीख कर कुछ बोला था। उनके पल्ले कुछ नहीं पड़ा था। वे बस भय से एक कोने में सिकुड़े-सिमटे उसकी तरफ टुकुर-टुकुर देखते रहे थे। कोई जवाब ना पा कर अब वो रूसी चिल्लाया था- सोनिया गांधी? राजीव गांधी? उस विदेशी के मुंह से सोनिया गांधी, राजीव गांधी का नाम सुन कर सबकी जान में जान आई थी। लगा था, बच गए। अबकी बार सब उत्साह से भर कर कोरस में बोले थे- येस! येस! मगर उनका जवाब सुनते ही जाने क्या हुआ था, रूसी भालू की तरह गुस्से से भुनभुनाते हुये उन पर डंडा ले कर पिल पड़ा था और देर तक भयंकर पिटाई करने के बाद उन्हें अधमरा कर बोर्डर के बाहर फिंकवा गया था। बाद में अपने फटे होंठ से खून पोंछते हुये सतनाम ने बोला था, यार गल्त बोल गया। राज कपूर, नर्गिस का नाम लेना था। ये रूसी उनके बड़े फैन होते हैं!

    उस हादसे के बाद वे डरे हुये जानवर-से चौकन्ने रहते हैं हर समय। एक-एक कदम सावधानी से रखते हैं, इधर-उधर देखते हुये। एजेंट पंछी या किसी जानवर की आवाज में इशारा करते ही वे सब इधर-उधर छिप जाते हैं, घंटों बिना हिले-डुले एक जगह भूखे-प्यासे पड़े रहते हैं। रात-दिन निरंतर भीतर बने रहने वाले इस अनाम डर ने जैसे उनका खून सोख लिया है। जब वे इस सफर में निकले थे, उनके भीतर उम्मीद और हौसला था। साथ सबके देखे हुये सपनों की गठरी और उन्हें पूरे करने का इरादा। और अब… इन कुछ ही दिनों की भूख, मार और रात-दिन के डर ने उनकी आँखों के सितारे बुझा दिये थे। वे बस हाँका पड़े जंगल के भयभीत पशुओं की तरह भाग रहे थे। जाने किस तरफ! दिशाएँ गडमड हो गई थीं।

    अपने वतन में हर दिशा, हर रास्ता अपना हुआ करता था। अब तो पैर के नीचे की जमीन भी पराई है! एक नए किस्म के डर ने, एहसास ने उन्हें इन दिनों जकड़ लिया है। इससे वे पहले वाकिफ नहीं थे। निरंतर भागते-दौड़ते कश्मीरा को बस इतना याद है कि जब वे गाँव से चले थे, नया चाँद हँसुली भर था, आज जो दिखा तो लगभग गोल। देश में चाँद लेटा-सा दिखता था, इधर जैसे खड़ा हो! इसी से उसने अनुमान लगाया था, वे पूरब से काफी दूर पश्चिम की ओर निकल आए हैं। इससे पहले जब भी उसने या दल के किसी ने एजेंट से कुछ पूछने की कोशिश की है, एजेंट ने भद्दी गाली दे कर उसे चुप करा दिया है।

    शुरू-शुरू में कश्मीरा का खून खौल उठता था। एक बार विरोध करने पर उन लोगों ने उसे बुरी तरह पीटा था। किसी ने उसकी मदद नहीं की थी। आँखों में खौफ लिए चुपचाप उसे पिटते हुये देखते रहे थे। मदद करते भी तो कैसे! इस परदेश में वे हर तरह से मजबूर थे। ये विदेशी एजेंट जानवरों की तरह खतरनाक और बेरहम थे। बात-बात पर टूट पड़ते थे। मुंह में हमेशा गाली। हिन्दुस्तानी एजेन्टों ने जिस दिन से उन्हें इन विदेशी एजेन्टों के हवाले किया था, उनका बुरा वक्त शुरू हो गया था। जुबान ना समझने की त्रासदी कितनी विकट हो सकती है, अब जा कर समझा था।

    पिछले जाने कितने दिनों से वे इस अंधकार के अतल समुद्र में लगातार डूबे हुये थे। वे यानि उनके सोलह लोगों का दल और दो एजेंट। हिंदुस्तान से सड़क के रास्ते से हो कर वे सब गैरकानूनी ढंग से जर्मनी जा रहे थे। इस काम में पैसा ले कर कुछ एजेंट उनकी मदद कर रहे थे। कई दिन हुये वे सब पंजाब से निकले थे। कश्मीरा नेपाल के बार्डर पर दल के बाकी लोगों से पहली बार मिला था। बस उसके पड़ोस का जग्गा और सतनाम पहले से उसके साथ था। कभी किसी गोदाम में, कभी माल गाड़ी के दमघोंटू डब्बों में तो कभी जहाज के कंटेनर में... मन ऐसे अकबकाता था कि लगता था जान निकल जाएगी। अधिकतर यात्रा रातों को, दिन ढलने के बाद…

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